भारत भूमि पर पितरों का महापर्व श्राद्ध बड़े श्रद्धा और आस्था के साथ मनाया जाता है। यह पर्व न केवल पूर्वजों को स्मरण करने का अवसर देता है, बल्कि हमारे जीवन में उनके योगदान, आशीर्वाद और परंपरा के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का साधन भी है। पंचांग की गणना के अनुसार, आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से इसका प्रारंभ माना जाता है और आश्विन कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक इसे श्रद्धा पूर्वक मनाया जाता है। इस प्रकार एक
पूर्णिमा और कृष्ण पक्ष की पंद्रह तिथियों को मिलाकर कुल सोलह श्राद्ध तिथियाँ बनती हैं।
शास्त्रों में चंद्रमा और सूर्य को पितरों का कारक बताया गया है। चंद्रमा का पूर्ण रूप, अमावस्या की तिथि और सूर्य की गति पितरों से संबंधित मानी जाती है। अतः श्राद्ध में तिथि का विशेष महत्व है।
कई बार सुनने में आता है कि ‘हमने तो गया जी में अपने पितरों का श्राद्ध कर दिया है, अब हमें कुछ करने की जरूरत नहीं।’ परंतु यह धारणा शास्त्रों के अनुरूप नहीं है। गरुड़ पुराण, पद्म पुराण, विष्णु पुराण, ब्रह्म पुराण, मच्छीपुराण आदि ग्रंथों में स्पष्ट उल्लेख है कि श्राद्ध नित्य और नैतिक कर्तव्य है। यह केवल एक बार का अनुष्ठान नहीं, बल्कि हर वर्ष श्रद्धा से पितरों के निमित्त करना आवश्यक है।
स्मृति ग्रंथों में यह भी कहा गया है कि लगभग हर 10 से 12 माह में पितरों की ऊर्जा क्षीण हो जाती है। ऐसी स्थिति में वे अपने वंशजों से जल, तर्पण और पिंडदान की आशा करते हैं। यदि परिजन श्राद्ध न करें तो पितरों का क्लेश प्रारंभ हो सकता है। इसलिए श्राद्ध को निरंतर निभाना, उनकी सेवा करना, उन्हें स्मरण करना हमारे धर्म और जीवन का अभिन्न हिस्सा है।
श्राद्ध केवल परंपरा नहीं, यह एक आध्यात्मिक साधना है। यह जीवन को संतुलन, विनम्रता और कृतज्ञता से भरने का अवसर देता है। यह हमें स्मरण कराता है कि हम अपने पूर्वजों के कारण आज यहाँ हैं। उनका आशीर्वाद ही परिवार की रक्षा करता है, सुख-समृद्धि देता है और मानसिक शांति प्रदान करता है।
साथ ही, श्राद्ध हमें यह भी सिखाता है कि जीवन में भोग और त्याग का संतुलन आवश्यक है। पूर्वजों का सम्मान कर हम अपने बच्चों में भी संस्कारों का बीजारोपण करते हैं।
श्राद्ध में तर्पण, पिंडदान, ब्राह्मण भोजन, दान और प्रार्थना मुख्य अंग होते हैं। जल अर्पित कर, पिंड देकर, अन्न दान कर पितरों का स्मरण किया जाता है। श्राद्ध के दौरान मन में श्रद्धा, संयम और शुद्धता आवश्यक है। अहंकार, दिखावा और अनुष्ठान में जल्दबाजी से बचना चाहिए।
श्राद्ध केवल एक धार्मिक कर्मकांड नहीं, यह जीवन की निरंतरता का उत्सव है। यह हमारे भीतर संवेदना, करुणा और कृतज्ञता को जगाता है। इसलिए चाहिए कि हम न केवल गया या किसी तीर्थ में श्राद्ध करें, बल्कि प्रत्येक वर्ष श्रद्धा से इसे निभाएँ। पितरों का आशीर्वाद ही परिवार की धरोहर है और यह परंपरा आने वाली पीढ़ियों तक सुरक्षित रहे, यही हमारी जिम्मेदारी है।
नेहा वार्ष्णेय
दुर्ग छत्तीसगढ़

