हिन्दू आन्दोलन - Hindu Movement
हिन्दू आन्दोलन के रूप में सामाजिक तथा धार्मिक सुधार हेतु विभिन्न संस्था व समाज, संगठन एवं आन्दोलन ने अपना योगदान दिया और साथ ही कुछ महान व्यक्तियों ने अपने कार्यों के माध्यम से आन्दोलन को बढ़ाया।
हिन्दू आन्दोलन में सहायक प्रमुख समाज, संस्था व अन्य आन्दोलन
ब्रह्म समाज
राममोहन राय ने 20 अगस्त, 1828 को ब्रह्म समाज की स्थापना की। उसका उद्देश्य हिन्दू समाज की बुराइयाँ दूर करना, ईसाइयत के प्रभाव को रोकना और सब धर्मों में आपसी एकता स्थापित करना था। ब्रह्म समाज का स्वरूप भारतीय था और इसे 'अद्वैतवादी विद्वानों की संस्था' कहा जा सकता है। इसका उद्देश्य हिन्दू धर्म को रूढ़ियों से मुक्त कर नया रूप देना था। यह मूर्तिपूजा के बहिष्कार, अवतारवाद के विरोध, ईश्वर की एकता और जीवात्मा की अमरता में विश्वास करता था। एक रूसी विद्वान् के अनुसार, "ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने ब्रह्म समाज की गतिविधियों में हर तरह से रुकावटें डाली और बुद्धिजीवियों को गुमराह करने की कोशिश की। "
राममोहन राय ने जिस ब्रह्म सभा नामक एक नए समाज का निर्माण किया था, वही आगे चलकर ब्रह्म समाज के नाम से जाना गया (1829 ई.)। इस सभा का उद्देश्य था राममोहन की मान्यताओं के अनुरूप हिन्दू धर्म में सुधार लाना। इस समाज ने मूर्ति पूजा का विरोध किया और एक ब्रह्म की पूजा का उपदेश दिया। समाज के सिद्धान्तों और दृष्टिकोण के मुख्य आधार थे मानव विवेक, वेद और उपनिषद् | समाज मानव गरिमा को ऊंचा स्थान देता था और सभी धर्मों की अच्छाइयों को अपनाने के पक्ष में था। इसके कार्यक्रम में हिन्दू, मुस्लिम और ईसाई तीनों धर्मों के गुणों का समावोश किया गया था। समाज ने सभी विवेकहीन सामाजिक प्रथाओं एवं धार्मिक कर्मकाण्डों की दो टूक आलोचना की। इसने एकेश्वरवाद का समर्थन किया।
यंग बंगाल आन्दोलन
पूर्वी भारत से सम्बन्धित एक अन्य प्रमुख सुधारक है हेनरी विवियन डेरोजियो (1809-31 ई.)। वे एक एंग्लो-इण्डियन थे जो हिन्दू कॉलेज में प्राध्यापक (1826-31 ई.) थे। जनी के यंग इटली आन्दोलन से प्रभावित होकर उन्होंने बंगाल में 1828 में यंग बंगाल आन्दोलन की शुरुआत की। उन्होंने बंगाल के नवयुवकों में राष्ट्रवादी भावना का संचार किया। उन्होंने अपने लेखन के द्वारा राष्ट्रवादी भावनाओं का प्रचार-प्रसार किया। उन्होंने अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए अनेक संगठनों की स्थापना की जिसमें प्रमुख हैं एकेडमिक एसोसिएशन सोसायटी फॉर द एक्वाजिशन ऑफ जेनरल नॉलेज, एंग्लो-इण्डियन हिन्दू एसोसिएशन और डिबेटिंग क्लब आदि। 'उन्होंने 'बंग-हित सभा' की भी स्थापना की। उन्होंने एक दैनिक पत्र, 'East India' 1835 ई, के द्वारा अपने विचारों से लोगों को अवगत कराया लेकिन अपने क्रान्तिकारी विचारों के कारण वे 'हिन्दू-कॉलेज' से निकाल दिए गए। दुर्भाग्यवश इसी वर्ष युवावस्था में ही इनकी मृत्यु हो गई। 'डेरोजियो' की मृत्यु के पश्चात् उनके शिष्यों ने उनको परम्परा को जारी रखा और बम्बई में एलफिंस्टन कॉलेज की स्थापना (1834 ई.) क इनके शिष्यों के द्वारा 'यंग बंगाल' की तर्ज पर यंग बॉम्बे और बंग मद्रास आन्दोलन की शुरुआत की गई।
परमहंस मण्डली
1849-50 ई. में आत्माराम पाण्डुरंग ने बालकृष्ण जयकर और दादोबा पाण्डुरंग की सहायता से बम्बई में परमहंस मण्डली की स्थापना की। यह एकेश्वरवाद तथा विश्व बन्धुत्व की अवधारणा पर आधारित था। परमहंस मण्डली का आन्दोलन एक स्वतन्त्र दार्शनिक आधार प्रस्तुत नहीं कर सका और वह ईसाई धर्म के अनुष्ठानों की बहुत अधिक नकल करने लगा। इसके कारण इसका जनता में प्रभाव कम पड़ा और 1860 ई. में यह मण्डली समाप्त कर दी गई।
वेद समाज
दक्षिण में सुधार आन्दोलन की शुरुआत तब से मानी जाती है जब मद्रास में वेद समाज की स्थापना (1864 ई.) हुई। इस समाज की स्थापना केशवचन्द्र सेन की प्रेरणा से हुई थी। आगे चलकर 'श्री घरलू नायडू द्वारा इस संस्था का पुनर्गठन किया गया और इसका नया नाम रखा गया दक्षिण भारत का ब्रह्म समाज। इस संस्था से जुड़े प्रमुख व्यक्ति थे आर वेंकटरत्नम् और शिवनाथ शास्त्री
दक्षिण भारत में इस आन्दोलन से जुड़ी दूसरी प्रमुख संस्था थी राजमुन्द्री सोशल रिफॉर्म एसोसिएशन (1878 ई.)। इसके संस्थापक थे विरेशलिंगम पतुलू। इसकी स्थापना 'प्रार्थना समाज' की प्रेरणा से हुई।
प्रार्थना समाज
केशवचन्द्र सेन की प्रेरणा से 1867 ई. में बम्बई में प्रार्थना समाज की स्थापना हुई। इसके संस्थापक आत्माराम पाण्डुरंग थे। 1800 ई. में महादेव गोविन्द रानाडे प्रार्थना समाज के सदस्य बने। इस समाज को प्रसिद्धि दिलाने का श्रेय रानाडे को ही जाता है। इनका एकेश्वरवाद में गहरा विश्वास था। इन्होंने हिन्दू धर्म में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठाई। प्रार्थना समाज में सामाजिक सुधार की दिशा में इन्होंने महत्त्वपूर्ण कार्य किया। इन्होंने बाल विवाह, पर्दा प्रथा, बहु विवाह एवं जाति-पांति का विरोध किया तथा स्त्री शिक्षा एवं विधवा विवाह को प्रोत्साहित किया। रानाडे ने शिक्षा के प्रसार के लिए 1884 ई. में पुणे में दक्कन एजूकेशनल सोसायटी की स्थापना की तथा 1891 ई. में महाराष्ट्र में विडो रिमैरेज एसोसिएशन की स्थापना की। प्रार्थना समाज ने 1882 ई. में मिशनरी कार्यक्रम शुरू किया। महाराष्ट्र की एक प्रतिभाशाली महिला पण्डिता रमा बाई ने आर्य महिला समाज की स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। प्रार्थना समाज के अनुयायियों ने विधवा आश्रम, अछूतोद्धार, रात्रि पाठशालाएँ आदि समाज सेवी संस्थाएँ शुरू की।
1899 ई. में प्रो. डी के कर्वे ने पूना में विडो होम की स्थापना की और विधवाओं को डॉक्टर, अध्यापिका तथा नर्सों बनाकर उनके जीवन में नया उत्साह लाने का कार्य किया। इन्होंने 1906 ई. में बम्बई में इण्डियन वीमेन्स यूनिवर्सिटी (भारतीय महिला विश्वविद्यालय) की स्थापना की। प्रार्थना समाज ने विभिन्न संस्थाओं के माध्यम से अपने आन्दोलन को आगे बढ़ाया। इन संस्थाओं में दलित जाति मण्डल, समाज सेवा संघ तथा दक्कन शिक्षा सभा प्रमुख हैं।
आर्य समाज
आर्य समाज की स्थापना बम्बई में 1875 ई. में स्वामी दयानन्द सरस्वती 1824-83 ई.) के द्वारा की गई। उनका जन्म काठियावाड़ में और मृत्यु जब अजमेर में हुई थी। आरम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् वे धर्म के मूल तत्त्व की तलाश करने निकले तो इस क्रम में उनकी मुलाकात मथुरा के अन्धे स्वामी विरजानन्द से हुई (1860 ई.) और इन्हीं ने उन्हें सही रास्ता दिखाया। गुरु से ज्ञान पाने के पश्चात् वे पूरे भारत में घूम-घूमकर अपने ज्ञान का प्रचार-प्रसार करने लगे। सामाजिक और धार्मिक सुधारों को एक संगठित रूप देने के लिए उन्होंने बम्बई में 'आर्य समाज की स्थापना की थी।
सरस्वती पश्चिम संस्कृति के विरोधी और भारतीय संस्कृति के बहुत बड़े पक्षधर थे। वे भारतीयों के गौरवशाली अतीत पर जोर देते हुए कहते हैं कि आज पश्चिम ने जो उपलब्धियाँ हासिल की हैं वह हमने बहुत पहले प्राचीन काल में ही प्राप्त कर ली थीं। धार्मिक आडम्बरों एवं कुरीतियों पर प्रहार करते हुए वे धर्म के शुद्धतावादी तत्त्व पर जोर देते और इस क्रम में नारा देते हैं वेदों की ओर लौटो।
सरस्वती अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए वैदिक संस्कृत की जगह बहुसंख्यक लोगों की भाषा हिन्दी का प्रयोग करते हैं। यहाँ तक कि उन्होंने अपनी प्रसिद्ध रचना सत्यार्थ प्रकाश हिन्दी में लिखी थी। यह पुस्तक उनके सिद्धान्तों का आधार ग्रन्थ है। आर्य समाज को सबसे अधिक सफलता उत्तर भारत में मिली लेकिन यह सबसे अधिक लोकप्रिय उत्तर-पश्चिम भारत में हुई।
सरस्वती की मृत्यु के पश्चात् शिक्षा के प्रश्न पर इनके अनुयायी शिक्षा पद्धति की वकालत कर रहे थे वहीं दूसरा वर्ग परम्परागत शिक्षा की व्यवस्था की। प्रथम वर्ग में 'दयानन्द एंग्लो वैदिक स्कूल' ' (1886 ई. लाहौर) की स्थापना की जो बाद में 'एंग्लो वैदिक कॉलेज (1889 ई.)' में तब्दील हो गया। यहाँ पश्चिमी पद्धति से पढ़ाया जाता था। दूसरे गुट ने हरिद्वार के निकट कांगरी में 'गुरुकुल विश्वविद्यालय (1902 ई.)' की स्थापना की। यहाँ परम्परागत भारतीय पद्धति से पढ़ाई हुई।
थियोसोफिकल सोसायटी
उत्तर भारत में जिस दूसरे प्रमुख संगठन ने इस आन्दोलन को गति प्रदान की, उसका नाम है थियोसोफिकल सोसायटी इस सोसायटी की स्थापना अमेरिकी कर्नल अल्कॉट (1831-97 ई.) और रूसी महिला मैडम ब्लावत्सकी (1831-91 ई.) ने अमेरिका में 1875 ई. में की थी। बाद में मद्रास के समीप अड्यार नामक स्थान पर इस सोसायटी का मुख्यालय (1882) बनाया गया। अतः भारत में इसकी राष्ट्रीय शाखा 18 दिसम्बर 1890 में अडयार में स्थापित हुई। इसी सोसायटी का कार्य भार सँभालने ऐनी बेसेण्ट 1893 ई. में भारत आई। फिर इस सोसायटी की गतिविधियों का मुख्य केन्द्र भारत हो गया और इसकी गतिविधियाँ ऐनी बेसेण्ट के इर्द-गिर्द घूमने लगीं।
ऐनी बेसेण्ट समाज के उत्थान में शिक्षा का योगदान अहम मानती थी इसलिए उन्होंने बनारस में 'सेण्ट्रल हिन्दू स्कूल' की स्थापना की। कालान्तर में यही स्कूल 'पण्डित मदनमोहन मालवीय के प्रयासों से बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (1915 ई.) में तब्दील हो गया।
हिन्दू आन्दोलन में योगदान देने वाले प्रमुख व्यक्ति
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने यद्यपि एक स्वतन्त्र सुधारक के रूप में कार्य किया, तथापि उनकी गतिविधियाँ ब्रह्म समाज की गतिविधियों के अन्दर थीं। उन्होंने सामाजिक कुरीतियों और प्रथाओं के विरुद्ध अभियान छेड़ा। उन्हें उल्लेखनीय सफलता विधवा पुनर्विवाह के मामले से मिली, जब उनके अनुरोध पर 'हिन्दू विधवा' पुनर्विवाह अधिनियम, 1856 पारित किया गया था। इनके संरक्षण में ही बंगाल में 7 दिसम्बर, 1856 को पहला कानूनी विधवा पुनर्विवाह सम्पन्न हुआ। इनके प्रयास से 25 बालिका विद्यालय स्थापित हुए। ये बैथुन स्कूल के निरीक्षक पद पर भी रहे। साथ ही इन्होंने बंगला की नई वर्णमाला विकसित की।
स्वामी विवेकानन्द
कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज से अंग्रेजी में स्नातक इस सुधारक का मूल नाम था नरेन्द्र दत्त। ईश्वर सम्बन्धी अपनी अवधारणा के कारण वे अनेक विद्वानों के सम्पर्क में आए, लेकिन किसी ने भी उनकी जिज्ञासा को शान्त नहीं किया। अन्त में कलकत्ता के दक्षिणेश्वरी काली मन्दिर के पुजारी रामकृष्ण परमहंस ने न सिर्फ उनकी जिज्ञासा को शान्त किया, बल्कि उन्हें ईश्वर से साक्षात्कार भी कराया।
'शिकागो' में प्रस्तावित विश्व धर्म सम्मेलन (1893 ई.) में भाग लेने विवेकानन्द वहाँ पहुँचे। आरम्भिक कठिनाइयों के पश्चात् उन्हें एक अमेरिकी महिला की मदद से इस सम्मेलन में भाग लेने का मौका मिला। उन्होंने इस सम्मेलन के अपने पहले की उद्घोषणा- 'अमेरिका के भाइयों और बहनों' (Brothers And Sisters Of America) से अमेरिकावासियों का दिल जीत लिया। फिर कई दिनों तक इनके प्रवचन चलते रहे। इस प्रवचन में उन्होंने विश्व क्षितिज पर हिन्दू धर्म की महत्ता को स्थापित करने का प्रयास किया।
शिकागो की सफल यात्रा के पश्चात् अपने यूरोपीय मित्रों के अनुरोध पर यूरोप के कई शहरों में अपना व्याख्यान देते रहे। यूरोप की सफल यात्रा के पश्चात् वे भारत लौटे और यूरोपीय मिशनरियों की तर्ज पर रामकृष्ण मिशन की स्थापना की (1897 ई.)। इसका नाम उन्होंने अपने गुरु के सम्मान में रखा।
मिशन के सिद्धान्तों का आधार था वेदान्त दर्शन। मिशन के कार्यों में मानवतावादी पक्ष काफी महत्त्वपूर्ण रहा है। बाढ़, सूखा और भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदाओं में इसका कार्य उल्लेखनीय रहा है। मिशन ने शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की, जिसकी परम्परा आज भी चल रही है। इस तरह विवेकानन्द के दर्शन और सुधारों ने भारतीयों में आत्मविश्वास और आत्मसम्मान का भाव जागृत किया।